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Tuesday, September 14, 2010

थका परिन्दा - तरसतीं आँखें .. रचना - डॉ नूतन गैरोला


   थका परिन्दा - तरसतीं आँखें  
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तेरी याद में दिन इक पल सा ओझल होने को है |
और अब शाम आई नहीं है के सहर होने को है ||
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मेरे सब्र का थका परिन्दा टूट के गिरने  को  है |
दीदार को तरसती आंखे और पलकों के परदे गिरने को है ||
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चिरागों से कह दो न जलाये खुद के दिल को इस कदर |
के रोशनी  का इस दिल पर अब ना असर कोई होने को है ||

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मेरी ये पंक्तिया उन थके माता पिता को समर्पित है जिनके बच्चे बड़े होने पर गाँवों में या कही उनेह छोड़ कर चले जाते है अपनी रोजी रोटी के लिए और इस भागमभाग में कहीं बुढे माता - पिता उनकी आस में उनकी यादो के साथ उनका इन्तजार करते रह जाते है.. .....
डॉ नूतन गैरोला 12/जूलाई /2010 ..१०:०० बजे रात्री
photo - google

7 comments:

डॉ0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ (Dr. Zakir Ali 'Rajnish') said...

नूतन जी, बहुत सुंदर भाव हैं। बधाई स्वीकारें।
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प्यार का तावीज..
सर्प दंश से कैसे बचा जा सकता है?

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

Jakir ji !! Dhanyvaad aur shubkamnayein.

वन्दना said...

। आज कमोबेश हर घर मे यही हाल है………………उस दर्द को बखूबी उकेरा है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

@ वंदना जी !!
@ संगीता जी !!
जी हां रोजी रोटी भी आवश्यक जरूरत है..किन्तु माता पिता भी उपेक्षित हो जाते है कभी कभी - कहीं कहीं - बस उनकी आँखों में इंतजारी होती है अपने बच्चों की - आप दोनों को मेरा नमस्कार

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

This post has been removed by the author.

Kailash C Sharma said...

आज के समय में माता पिता का यह सर्वव्यापी दर्द है......जीवन के अंतिम पड़ाव में अंतहीन इंतज़ार ही शायद उनका प्रारब्ध है.....बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति.....आभार...