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Monday, May 17, 2010

खंजर और खून यकीन का


उनकी गुफ्तगू में साजिशो की महक आती रही ,
शहर -ए- दिल में फिर भी उनकी सूरत नजर आती रही
शिकायतों के पुलिंदे बांध लिए थे मैंने ,
मुंह खोलूँ कि उनको ऐब नजर आने लगे
पीठ पे मेरे खंजरो की साजिश चलती रही,
मौत ही मुझ को बेहतर नजर आने लगी
यकीनन यकीन का लहू बेहिसाब बहता रहा,
लहू अश्क बन आँखों में मेरे जमने लगा
झूठे हौन्श्ले भी जो वो मुझमे भरने लगे ,
और मौत भी मुझको तब मयस्सर न हो सकी
कोई कह दे मेरी मौत से कि वो टल जाये ,
कि जीने के ढंग अब मुझे भी आने लगे है ....

डॉ नूतन गैरोला .. १७ / ०५ / २०१०