समय का पहियां घूमता, फैलता, खींचता, समय.. बढती उमर ...
पकवान जो लुभाते थे ख्यालो में कभी क्यों कर स्वाद फीका हो चला है.. और वो कोरे कागजों के फूल इत्र उड़ा, मिटती सुगंध..
ज्यूं खट खट टक टक के संग आभासीय दोस्ती, जो साथ थे पास थे फासले समय के साथ कितने बड़े कि नदी के किनारे भी ना हुवे जो मिलते कभी नहीं थे समान्तर चलते भी ना रहे ...
तुम वही हो, पर कितने बदल गए हो और तुम्हारा नजरिया बदल गया है | कभी लगता है मुझे क्यूं तुम बदले ? पर खुद को समझी नहीं मैं .. शायद नजरिया मेरा ही बदल गया है धुंधला रही हैं नजरे मेरी, एक झुर्रि भी इठला रही माथे पर मेरे और मुझे मोटा चश्मा चढ़ गया है ||
डॉ नूतन गैरोला ..१३=१२=२०१० १९ :५५ ==============================
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