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Monday, July 12, 2010

तरसती निगाहें




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तेरी याद में दिन इक पल सा ओझल होने को है |
और अब शाम आई नहीं है के सहर होने को है ||
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मेरे सब्र का थका परिन्दा टूट के गिर पड़ा है |
दीदार को तरसती आंखे और पलकों के परदे गिरने को है ||
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चिरागों से कह दो न जलाये खुद के दिल को इस कदर |
के रौशनी का इस दिल पर अब ना असर कोई होने को है ||
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मेरी ये पंक्तिया उन थके माता पिता को समर्पित है जिनके बच्चे बड़े होने पर गाँवों में या कही उनेह छोड़ कर चले जाते है अपनी रोजी रोटी के लिए और इस भागमभाग में कहीं बुढे माता - पिता उनकी आस में उनकी यादो के साथ उनका इन्तजार करते रह जाते है.. ..डॉ नूतन गैरोला 12/जूलाई /2010 ..१०:०० बजे रात्री


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