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Wednesday, June 22, 2011

आजन्म कारावास और पेरोल पर कैदी - डॉ नूतन डिमरी गैरोला


                      आजन्म कारावास और पेरोल पर कैदी
 
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जब आशाएं बिखर जाती है

उम्मीद भी तार तार हुवे फटे दामन को सिकोड़ लेती हैं

तब वही निरपराध कैदी

जो बंधक बनते समय

हाथ पैर पटकता है

चिल्लाता है

कहता है

मेरा ये घर नहीं, मेरी ये जगह नहीं

और जेल में तमाम दूसरे कैदी उसकी मजाक बनाते हैं

कैसे कैसे उस पर वार करते हैं

अपने भाग्य पर रोता वह पुरजोर कोशिश करता है बाहर जाने की

खुली हवा में उड़ जाने की

वह देखता है नफरत भरी निगाहों से कैद की दीवारों को

जेलर को, जेल के नुमाइंदों को

और उन बदसलूक साथियों को जो जरूर अपराधी होंगे

या उसकी तरह बेवजह सबूतों के अभाव में बेड़ियों में जकड़े होंगे|

पर जेल में कैदी पर कितने ही जुल्म ढ़‌‍ाए

मानसिक शारीरिक सामाजिक अवसादों से घिर गया वो

और इतनी यंत्रणा दी गयी और प्रताड़ित किया गया कि

उसकी आवाज गले में फंस उसके लिए फांसी का फंदा हो गयी|

और तब वह हार जाता है अपनी ही आवाजों से

हार जाती हैं आशाएं,  उम्मीदें तिनका तिनका हवाओं में उड़ जाती है

तब वह

स्वीकार कर लेता है अपना आजन्म कारावास

मान लेता है उस जेल को अपना घर

और वहाँ की कडुवाहट घुटन ये उसके अपने जीने के सामान हो जाते है

वह जीने लगता है मरने के लिए

या मर मर के भी मरता है, रोज जीने के लिए

दसकों बाद उसका सदाचार सनैः सनैः हो जाता है उजागर

और फिर मुनादी होती है,आता है हुक्मनामा

कैदी के, पेरोल का |

कैदी असमंजस में

अब बाहर उसका कोई अपना नहीं

टूट चुके शीशों के किरचो सा, सपना भी कोई बचा नहीं

पहले उसे बदनाम किया था, अब कहीं उसका नाम नहीं

शीशे में खुद की सूरत भी तो बदल चुकी है

और अब तो बाहर की दुनियां भी अजनबी हो चली है

बाहर जाना मतलब बिना दीवारों की कैद में होना

सभ्य अजनबी चेहरों में अपने चहेते क्रूर बंदियों का अभाव का होना

और फिर पतझड़ में मुरझाया फूल गुजरे बसंतों में खिल नहीं सकता

इसलिये

गुहार करता है कैदी , हुक्मरानो से

पेरोल उसकी खारिज करो

बंद कैद में ही उसको सड़ने दो, मरने दो|




                                     डॉ नूतन डिमरी गैरोला      २२ – ०६ - २०११

              
              सोचती हूँ कितना दर्द होगा उन कैदीयों का, जो कभी बिना अपराध के ही परिस्तिथिजनित, असत्य साक्ष्यों की वजह से मुजरिमकरार किये जाते हैं और वो अपनी सफाई में कोई सबूत तक नहीं पेश कर पाते और भेज दिए जाते हैं कालकोठरी में जीवन बिताने के लिए, फिर उम्र के आखिरी पड़ाव में  उनको उनके अच्छे व्यवहार के लिए पेरोल पर छोड़ दिया जाता है| वो किन मानसिक यंत्रणाओं से गुजरते है जबकि उनको शारीरिक आघात भी कम नहीं पहुंचाए जा रहे होते है||
                 जेल के कैदी मानसिक रोगों से भी पीड़ित होते हैं जो बहुत लंबे समय तक अपना जीवन कैद में बिता रहे होते हैं उनमें “स्टॉकहोम सिंड्रोम  जैसी एक साईकोलोजिकल स्तिथि उत्पन्न  हो जाती है  और  कैदी जेल में दी जा रही यंत्रणाओं को व वहाँ के माहोल को पसंद करने लगता है….मानव मन, कैद की स्तिथि में कैसे प्रतिक्रिया करता है यह उसका उदाहरण है |
                       फिर  सोचती हूँ जमींदारी और सामंतवाद में कभी कभी जबरदस्ती दुल्हन बना ली गयी महिलायें भी  क्या ऐसा ही महसूस करती थी होंगी………………


                                              नूतन (नीति)