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Saturday, July 9, 2011

आखिरी लपक–डॉ नूतन गैरोला



          10-02-MonachofLove



स्थिर थी वो
जो रक्स करती
रोशनियों के संग इठलाती|
आज चंचल बनी, कुलबुलाती है लौ|
कंपकंपाती है, थरथराती है लौ |
है घड़ी अंतिम बिदाई की
लपक आखिरी यूं लपलपाती है |
आत्मा की परी
लंबी उड़ान के लिए
ज्यूं पंख फडफडाती है |
कुछ चिंगारियां है शेष
धूमिल आखिरी धुवें का अवशेष
आँधियों का शोर जोरों पे है,
कालरात्रि का भंवर भोर पे है|
कमजोर अँधेरे उठ खड़े हुवे हैं
लुप्त होता जान लौ को
एक शीत मुस्कराहट के संग
अपने उजले भविष्य पर दंग
स्वागत गीत गाते हैं वो|
समय का खेल
जल चुका है तेल|
माटी से गढा दीया
माटी में पड़ा दीया
अब माटी होने को है|
रे कुम्हार!
सुन मेरी आखिरी विनती पुकार
कर सृजन अगण्य दीयों का|
जिनसे हार चुका उजाला
उस तमस को दूर करना
|

 

डॉ. नूतन गैरोला .. ९ जुलाई २०११