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 स्थिर थी वोजो रक्स करती
 रोशनियों के संग इठलाती|
 आज चंचल बनी, कुलबुलाती है लौ|
 कंपकंपाती है, थरथराती है लौ |
 है घड़ी अंतिम बिदाई की
 लपक आखिरी यूं लपलपाती है |
 आत्मा की परी
 लंबी उड़ान के लिए
 ज्यूं पंख फडफडाती है |
 कुछ चिंगारियां है शेष
 धूमिल आखिरी धुवें का अवशेष
 आँधियों का शोर जोरों पे है,
 कालरात्रि का भंवर भोर पे है|
 कमजोर अँधेरे उठ खड़े हुवे हैं
 लुप्त होता जान लौ को
 एक शीत मुस्कराहट के संग
 अपने उजले भविष्य पर दंग
 स्वागत गीत गाते हैं वो|
 समय का खेल
 जल चुका है तेल|
 माटी से गढा दीया
 माटी में पड़ा दीया
 अब माटी होने को है|
 रे कुम्हार!
 सुन मेरी आखिरी विनती पुकार
 कर सृजन अगण्य दीयों का|
 जिनसे हार चुका उजाला
 उस तमस को दूर करना|
   डॉ. नूतन गैरोला .. ९ जुलाई २०११ 
 
 
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