आज के दिन
( सोलह जून २०११ )
आज के दिन न मुझसे पूछो तुम
कितने अंधेरों ने बढ़ कर
मेरे दिन को सियह रातों में बदल दिया है|
मेरी खुशियों में पसर गए हैं कितने
दुःख भरे आंसू के बादल…….
आज के दिन छा रहे
घोर मायूसियों के सायों ने-
सितम के कितने नस्तरों से
मुस्कुराहटों का हक बींध लिया है|
आज के दिन पूर्णिमा को
ग्रहण के अंधेरों ने
बिन अपराध निगल लिया है|
हो कितना भी घना अँधेरा
न हो निराश, वादा है
मिटा कर इन अंधेरों को,
चमकुंगा मैं फिर फलक पर
और मिल जाऊंगा धरा से
पाकिजा चांदनी बन कर |
आज की रात जब शुरू हुवी थी, पहाड़ पर चाँद यूं चढ़ने लगा| कल रात का ग्रहण भुला कर और चांदनी बिखेरता हुवा| दिन भर की धुप से झुलसा हुआ जंगल, शीतल चांदनी में नहा कर मुस्कुराने लगा, लहराना लगा |