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Friday, October 21, 2011

नागफनी और गुलाब - डॉ नूतन गैरोला २१-१०-२०११ १६:२५

  
नागफनी और गुलाब

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दूर दूर रहते थे नागफनी और गुलाब,
था एक घनिष्ठ मित्र जोड़ा -
एक दिन नागफनी एकांत से झुंझला कर
ईर्ष्या से बोला -
ऐ गुलाब!!
घायल तू भी करता है अपने शूलों के दंश से
फिर भी सबका प्रिय है तू अपने फूलों और गंध से|
तू दुलारा माली का कहते हैं बगिया की तुझसे शान है
लेकिन मुझमे ही ज्यादा ऐब हों ऐसा मुझे  ज्ञान नहीं |
तुम ही बोलो क्या मुझमे ही ढंग से जीने का ढंग नहीं |
जबकि मुझ पर पल्लवित पुष्प भी कुछ गुणी और सुन्दर कम नहीं |
फिर भी मैं निर्वासित हूँ, माली द्वारा परित्यक्त हूँ |
एकांत में जीने के लिए मैं क्यों कर इतना अभिशप्त हूँ|
भूल से उग आया था बगिया के अंदर मैं
तब उखाड बाहर फेंका गया था मैं निर्जन बंजर में|
मेरा ना कोई माली ना मुझको कोई छाँव है
और तू जी रहा है बगिया के भीतर सुन्दर फूलों के गाँव में |
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सुन कर गुलाब ने चुप्पी तोड़ी|                          
धीमे से बोला -
मुझको करता है माली बेहद प्यार, इससे मैं अनभिज्ञ नहीं
फिर भी जाने क्यों  मैं माली का हृदय से कृतज्ञ नहीं |
वो कहतें हैं कि उनकी बगिया की शान हूँ मैं
मुझ बिन उनके गुलदस्ते में आती जान नहीं |
तोड़ लिया जाता है मेरे पल्लवित सुमन को
सौगात बना कर  हर बार लुभाया जाता है प्रेमियों के मन को |
मेरी सुंदरता, मेरी कोमलता को वो करते हैं अर्पण
जहां होते हैं उनके श्रधेय आराध्य के चरण |
भाग्य के मीठे फल की उनकी कामनाओं पर
चढ़ा दिया जाता हूँ देवताओं के शीश पर,
मेरे खिलते सुकुमार सुमन 
चढ़ जाते हैं बलि की भेंट बन श्रद्धा सुमन|
 
इस सबके बीच मुझे बस सिर्फ खोना है |
उनकी इच्छाओं के लिए मुझे तो सिर्फ अर्पित होना है|
मेरी  दुनियाँ की परिधि है सीमित संकुचित इतनी
जैसे मेरे तनों  पर मेरी पत्तियां चिपकी हुवी |
मुझे नहीं मिल पाया मेरा खुला आसमान मेरी जमीन
मैं बंद दीवारों में घुटता रहा हूँ  तू कर  यकीन |
जड़ें मेरी सिमट कर आश्रित हो गयी हैं उनकी दया पे
उनके रखरखाव के बिना लटक कर गिर जाऊँगा धरा पे|
 
ऐ नागफनी !!                   
देख तू ना बंधा है इस सुन्दर दिखने वाली कैद में
मिला तुझे अपना एक विस्तृत संसार माली रुपी मोक्षद से|
खुले आसमान ने जगा दी है तेरे जीने की तीव्र  इच्छा व जीवटता
अकेले ही तू ऋतुवों के आक्रोश से रहा लड़ता खटता|
अब माली के बिना तपिश में जीने के लिए ढल गया है तू 
अपनी हरियाली के भीतर नीर का शीतल समंदर बन गया  है तू|
जुझारू तेरे निहित गुण से ऊर्जस्वी हो गया  है तू
प्रस्फुटित होते पुष्प तुझ पर, खुद मुकुलित हो गया है तू|
पुष्प तेरे भले ही लुभाते हो सभी को
कोई तेरे पुष्पों को तोडेगा, नोचेगा या अर्पित करेगा
इस बात का तुझे डर नहीं
इस विछोह का तुझे कोई भय तो नहीं |
इसलिए हे नागफनी!
तू माली को धन्य कर
अपनी धरती से तू नाता गहरा कर
और बंधनमुक्त जीवन को महसूस कर|
 
गुलाब की बातों पर नागफनी खुशी से मुकुराया
नागफनी को खुश देख गुलाब भी मुस्कुराया |
खुले में मंद बयार चलने लगी, नागफनी आनंद लेने  लगा|
और गुलाब, वापस बगिया के अंदर ठहरी हवा में सिहर कर  सिमट गया|
 
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डॉ नूतन गैरोला    २१- अक्टूबर  - २०११

Monday, October 17, 2011

वह अनजान स्त्री - डॉ नूतन गैरोला

   
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     आज भी याद आता है
    पोस्टमार्टम कक्ष में
    जब लायी गयी थी वो हमारे सामने
    बेहद खूबसूरत कमसिन थी
    पीली साड़ी उस पर चटख नारंगी फूल
    लावण्यता से भरपूर रूप खूब निखरता था|
     कोंटरास्ट की चोली
     शायद रंग नीला था ..
     माथे पर एक बड़ी लाल गोल बिंदी
     चमकता कुमकुम था|
     भरभर चूड़ी हाथ, मांग भर सिंदूर
     दमकता सुहाग उसका था ..
     पर जैसा दिखता था सबकुछ
     वैसा कुछ भी तो ना था ..
     बात बेहद दुखद थी 
     वह सिर्फ एक ठंडा जिस्म थी ..
     एक दरख़्त पर एक फंदे से  
     फांसी पर झूली थी  ..
     क्या सच था क्या झूठ था
     उसकी ख़ामोशी के संग सच भी निःशब्द था..
     एक चाक़ू बेरहम सा पर जरूरी 
     चीर गया था उसके जिस्म को कई कोनों से
     पेट, आतें, दिल, फेफड़े, गुर्दे, मांसपेशी, चमड़ी सब व्याख्या कर रहे थे     मौत के कारण  का 
      खूबसूरती के नीचे छुपा सत्य उसके उत्तकों के संग बाहर आ कर उघड़ गया था ..
      तब बोले थे ज्यूरिस के प्रोफ़ेसर देखो सच्चाई
      मौत फांसी से नहीं, मौत के बाद फांसी लगाई 
      हाथों की चमड़ी के नीचे जमे खून के थक्के थे
      हैवानों ने उसके हाथों को कितना कस के मरोड़ा था, देख हम हक्के बक्के थे|
      शायद मरने तक उस पर जकड़ा गया था शिकंजा
     और गालों के भीतर  होठो में छपे उसके स्वयं के दांतों के निशान
     बताते थे उसकी साँसों को उसकी आवाजों को जोरों से मुँह दबा के रोका था
     गले पे कसे गए शिकंजे के थे गहरे निशान
     उसकी उखडती साँस को
      बेरहमी से घोटा गया था ….
      महज उन पिशाचों की हवस के लिए
      उसने अपने परिवार अपने शरीर और आत्मा को खोया था और खोया था
      एक माँ ने बेटी, बच्चों ने अपनी माँ और पति ने अपनी चाँद सी पत्नी|
      उसकी आँखों के चमकते सितारों को
      सदा के लिए बुझा दिया गया था
      लाश को उसकी पेड़ पर फांसी पर झुला दिया गया था
      फिर एक नया मोड एक नयी कहानी 
      मौत के बाद भी एक इल्जाम उसके मत्थे मङ दिया गया था |
      कि जिन्दा रहने से वो घबराती थी
      बुजदिल थी वह
      इसलिए वह आत्मघाती बन सबसे नाता तोड़ गयी |

      डॉ नूतन गैरोला – १७- १० - २०११
            

 
   ये सच ही तो है और कितना भयानक सच… एक देह जिसके अरमान थे, जीवन अभी बचपन से उठ कर खिल रहा था - गाँव की वह विवाहित अति सुन्दर बाला की सुंदरता उसे किस कदर  हैवानों के आगे लील गयी… आज भी मुझे याद आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं …. उसके जिस्म के टुकड़े होते हुवे देखे.. एम् बी बी एस के तृतीय वर्ष में उस दिन का अनुभव हमारे लिए नया था ..उस के बाद तो आम हो गया| 

                                         मोर्चुरी का पहला दिन



                 याद आने लगता है मुझे मेडिकल कॉलेज और एम्,बी.ब.एस कोर्स का तीसरा साल / दूसरा प्रोफेसनल … हमें १५ - २० बच्चों के ग्रुप में बाँट लिया जाता था - और स्थान – मोर्चुरी - जहाँ रहस्यमय मौत या सडन डेथ के कारणों का और मौत के समय का पता करने के लिए मरणोपरांत शवपरिक्षण (postmortem) किया जाता है| यह महिला सुन्दर पीली साड़ी में ऐसा लगता था जैसे अभी बोलती हो… बस जरा गले की ओर नजर ना पड़े तो| हम सब का दिल भर आया था| और उसकी बातें कर रहे थे वो हमारे लिए अनजान थी और मात्र एक शव थी जिस में हम जीवन के अंश ढूंढ रहे थे|
     
            दूसरा शव एक छोटे बच्चे का था उम्र लगभग ५ साल - बैलगाडी के पहिये के नीचे सर आ जाने से मौत हुवी थी||
    
             तीसरा शव दो हिस्सों में विभाजित दो टुकड़ों में, रेलवे क्रोसिंग पर यह शव मिला था|

        और चौथा शव - एक प्युट्रीफाइड लाश एक  पुरुष की - पेट  सडती हुवी गेस से  गुब्बारे की तरह फूल गया था - पेट के अंदर गेस का प्रेशर इतना ज्यादा था कि जीभ पूरी मुँह से बाहर निकल कर फूल गयी थी| सड़ी बदबू से बुरे हाल हो रहे थे| हम लोग वहाँ से भागना चाहते थे किन्तु टीचर का डर था| रेजिडेंट्स वहाँ खड़े थे सों बाहर की खुली हवा में जा नहीं सकते थे .. नाक पर रुमाल लिए थे| पेट उलट रहा था | कि दो आदमी बहुत बड़े चाक़ू ले कर आये एक ने उसके पेट पर उलटे चाकू से हल्का निशान लगाया ..ताकि इन्सिजन की लाइन को हम भी समझ सके..तब उसने पेट पर जैसे ही गहरा चाकू घुसाया,  पेट से ब्लास्ट करती हुवी सड़ी हवा पुरे वेग से बाहर छत पर टकराई और साथ में कीड़ों / मेगेट्स का फव्वारा खुल गया ..कीड़ों की बारिश सी होने लगी… सभी विद्यार्थी कमरे से बाहर भागे …किन्तु दरवाजे में रेजिडेंट टीचर बाहर से आ कर खड़े हो गए| हुक्मनामा हुवा ..अंदर जाओ -- मेरे सभी साथियों का चेहरा घृणा से लाल और शरीर बदबू से बेहाल हो रखा था … हम लोग कमरे में उल्टियां कर रहे थे और विशेषग्य लोग शव  से विसरा के सेम्पल कलेक्ट कर रहे थे --- कैसे थे वो दिन .. मुस्‍कान  
-- डॉ नूतन गैरोला १७ – १० – २०११    23:38