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Saturday, July 23, 2011

रात में अक्सर - डॉ नूतन डिमरी गैरोला



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रात में अक्सर
मेरी खिडकी से
एक साया उतर
कमरे की हवा में
घुल जाता है|
आने लगती है
गीली माटी की गंध
और आँखे मेरी फ़ैल जाती है छत पर
जहाँ से अपलक निहारता है मुझे
मेरा वृद्ध स्वरुप|


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रात में अक्सर
जब लोग घरों के दरवाजे बंद कर देते हैं
तब खुलता है एक द्वार
कलमबद्ध करता है
कुछ जंग खाए
कुंद दिमाग के जज्बात
और मलिन यादों के चलते
जो अक्सर रह जाते हैं शेष |


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रात में अक्सर
याद आता है वो सफर
जो सफर नहीं था
था एक ठहराव खुशियों का
खिलखिलाती ताज़ी कुछ हंसी
जैसे किसी काले टोटके ने रोक ली हो
और मुस्कुराता चेहरा
धूमिल हो डूब जाता है
आँखों के सागर में |


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रात में अक्सर
जब शिथिल हो कर
गिर जाती है थकान
शांत बिस्तर में
रात उंघने लगती है तब 
पर तन्हाइयां उठ कर जगाने लगती हैं
और कानाफूसी करती है कानों में  
नीलाभ चाँद देर रात तक
खेला करता तारों से|


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द्वारा - डॉ नूतन डिमरी गैरोला
सभी चित्र नेट से … उनका आभार जिनकी ये तस्वीरें हैं ..

Tuesday, July 19, 2011

आंटी रुक्मणि - लघुकथा



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रुक्मणि जी जो कि मेरे पड़ोस में रहती हैं, अधेड़ उम्र की भद्र महिला हैं| आज मैं उनके साथ खरीदारी के लिए आयी थी|  खरीदारी के पश्चात दूकान के काउंटर पर खड़े किशोर ने रुक्मणि जी को पुकारा -“ये लीजिए आंटी - पेमेंट हो चुका है | आप अपना सामान ले लीजिए|” किन्तु रुक्मणि जी को जैसे किसी जहरीले भंवरे ने आ कर डंस दिया हो, वह बुरी तरह  आग बबूला हो गयी- “ क्यों लड़के बात करने की तमीज नहीं? जिसे देखो आंटी कह देते हो | दीदी जैसा अपनेपन से भरा कोई शब्द बचा नहीं है क्या?” कहते हुवे गुस्से से अपना सामान लड़के के हाथ से लगभग छीन सा लिया|  लड़का हक्काबक्का रह गया|
                                    मैं पूछ ही बैठी- क्यों रुक्मणि जी! आप इतना नाराज क्यों हो गयी हैं? ऐसा तो उसने कुछ नहीं कहा|. सुनना था कि वो फट पड़ी - “सब्र की भी एक सीमा होती है| आज कल के लोगों को देखिये, क्या आसान शब्द मिल गया है| जिसे देखिये आंटी कह देते हैं जैसे दीदी, भाभी, बहन कोई रिश्ता बचा ही ना हो| अब मुझे ही देखिये सत्रह  साल की हुवी ही ना थी कि शादी हो गयी| पतिदेव में और मुझमे उम्र का फासला भी दस साल का है और साहब कुटुंब में अपने पीडी के सबसे छोटे सदस्य हैं  - सारी भाभियों के सबसे लाडले छोटे देवर हैं| उनकी भाभियाँ उनको आते जाते छेडतीं हैं  खूब मजाक करती हैं वो उनके सामने बच्चे के सामान हैं और मुझे देखिये- माँ, पिता चाचा, मौसी, बुवा की उम्र के लोग ससुराल में मेरे जेठ जेठानियाँ हैं| मेरी उम्र वाले जो मेरी सहेलियां, नन्द ,देवर  जैसे होने चाहिए थे, सभी मुझे चाची कहतें है, मैं उनके साथ हंसी मजाक गपशप करना चाहूँ तो वो बोलते हैं - आप तो चाची हैं, आप बुजुर्गों के साथ जाइये| अब बोलिए जेठ और जेठानियों जो कि मेरी चाचा, चाची की उम्र की हैं, उनसे मैं क्या हँसी मजाक करूं , बस घूँघट किया रहता है| शादी होते ही दादी, नानी बन गयी मैं|   लगा मानों मेरे जीवन में जवानी जैसी कोई चीज आई ही नहीं| मैं बचपन से सीधे बूढी हो गयी| मन में बहुत कोफ़्त होती|
                                            वह आगे बोलीं - पतिदेव  ने एक दिन कहा कि शहर तबादला हो गया है| मुझे  काफी राहत मिली| सोचा अब गाँव के बुड्ढे रिश्तों से छुट्टी मिलेगी, मेरे दिन फिरेंगे, मुझे भी अपनी उम्र के हिसाब के रिश्ते मिलेंगे, लेकिन नहीं, ऐसा होना न था| शहर तो आ गयी, लेकिन गाँव से शहर पढ़ने आये रिश्तेदार विद्यार्थियों ने मेरे सपनों में पानी फेर दिया| वहाँ भी वो मुझे चाची, दादी कहते और उनकी सहेलियां और दोस्त भी यही रिश्ते मुझ पर लगाते| जहाँ भी शादी ब्याह में जाती तो मेरी हमउम्र  को ही नहीं, यहाँ तक की मुझसे काफी बड़ी महिलाओं को लोग दीदी, भाभी कहते और मुझे आंटी| दिल कट कर रह जाता| किस दिन मैं अपनी उम्र के रिश्ते पा सकुंगी|
                                    मैं रुक्मणि जी की बातें सुनती चली जा रही थी| वह भी आज अपने मन की भड़ास मुझसे कह कर हल्का कर रही थी| वह बोल रही थी मैंने अपनी बचपन जवानी आंटी आंटी सुन कर गुजार दी, अब मैं अपने साथ ये अन्याय नहीं होने दूंगी……
और वह बोले जा रहीं थी ………….
   




लेखक - डॉ नूतन डिमरी गैरोला   १९ / ०७ / २०११  २:२० दोपहर