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Sunday, October 30, 2011

कविता और रोटी – डॉ नूतन गैरोला -३०अक्टूबर २०११ १७:४०


     Roti


यूं तो कविताओं में अक्सर
जिक्र होता है भूख का
और भूखे की रोटी का,
लेकिन जब भी मैं रोटी बनाती हूँ
मन रसोई की खिड़की से कहीं बहुत दूर होता है
और आँख होती है तवे पर रोटी पर ,आदी हूँ ना|
मन बीते समय की सड़क पर
भागता जाता है आज और  दसकों पीछे तक
और हर पड़ावों पर रखी पोटली से निकालता है यादों का आटा
वेदना और आनंद से पूरित संवेदनाओं से सिंचित कर
मन बेलता कविताओं की रोटी कई कई प्रकार की
आड़ी तिरछी,
फिर चुन लेता है, उनमें से सबसे सुन्दर आकार
और उस बेहद सुन्दर आकार को
व्याकरण की आंच पर पकाता है जरूरत भर
कि कविता की रोटी मन के संग फूल कर फुल्का हो जाती है ..
और फिर भावनाओं की चटनी, शहद. दही सब्जी,
के साथ परोसी और चखी जाती
रोटी का स्वाद लजीज वह रोटी दिल को अजीज ..
उधर तवे पर पकी रोटियां परोसती हूँ ..
जो सबकी भूख को कर देती है शांत
और कविता की बनी सुघड रोटी मन में ही  दम तोड़ लेती है
पन्ने पर आकार नहीं लेती है,
समय नहीं मिलता(बहुत दुख  है) कागज़ की थाली पर कलम से रोटी को अतारने का हाँ समय मिलता या दे दिया जाता तभी
अगर वह भूखों की भूख को मिटा सकती
बेरोजगारी में रोजगार दे सकती
तब बड़े बुजुर्ग कहते बेटी तू कविता लिख ..
किसी को मुझसे कविता की अपेक्षा भी नहीं
लेकिन मुझे दुःख नहीं..
कल फिर चूल्हा जलाऊँगी
तवे पर होगी एक रोटी भूख की
और मन में एक रोटी बेहतरीन कविता की बनाउंगी|


डॉ नूतन गैरोला