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Sunday, April 4, 2010

संवेदनाओं की मौत - एक कहानी नहीं एक हकीक़त !!! लेख-द्वारा-- डॉ नूतन गैरोला

और इस तरह सम्मोहन के हाथो संवेदनाओं की मौत हो गयी

हमारी संवेदनाये जाने कहाँ खो गईं .. उन्नति के इस दौर में जबकि हर कोई भाग रहा है ..जीतने के लिए नहीं .. साथ दौड़ते साथियों को पिछाड़ने के लिए .. तो मानवीय संवेदनाएं तो खुद-ब-खुद विलुप्त होती जा रही है मानव जेहेन से .. समय की मांग है . be practical .. तो प्रेक्टिकल बनने के लिए कई बार मानवीय संवेदनाओं की बलि दे दी जाती है... और देनी पड़ती है ..
एक कंक्रीट के जंगल के बगल में एक हरभरा उपवन कितना भी जरूरी हो .. वहां के बच्चों के लिए खेलने की जगह और सभी को सैर सपाटा .. घुमाने की जगह .. स्वच्छ- शुद्ध वायु..चिडियों की चहचहाट बच्चो की किलकारियों से भरा उपवन ..उसके दाम बढ़ जाते हैं .. और मालिक उसे हाथोहाथ बेच देता है... लोगो की निगाहें उस संपदा से आई खुशहाली पर नहीं उसकी व्यावसायिक मूल्य पर पड़ती है .. और बड़े बड़े बिल्डर और धनी लोग इसको खरीदकर उसे एक व्यावसायिक और आवासीय कालोनी में तब्दील करते हुए .. एक विराट कंक्रीट के सूखे जंगल में बदल जाता है वह लहलहता उपवन .. वह सुंदर बाग़ीचा


एक मरीज जो कि आखिरी सांस ले रहा है .. उसकी मौत का ठीकरा डॉक्टर पर न फूटे- डॉ को लाचारी ( consumer court की ) है उसे रेफेर कर दिया जाता है .. और चाहे वह उस जगह तक पहुंचने तक सांस ना रोक पाए ... कैसे डॉ का हाथ उस मरीज के इलाज के लिए खुजलाता है पर संवेदनाएं ..ताक में रखो बच्चू पहले अपनी सुध लो.... नहीं तो कहीं जूतमपैजार की नौबत ना आ जाये .. हैरान न हों- यही है माहौल .. काम करते हाथों को भी रोक लिया जाता है... क्योंकि रिश्ते की पवित्रता मिट चुकी है... आदमी का विश्वास डांवाडोल हो चुका है... Doctor Patient relaionship पर एक डॉक्टर की नियत पर भी शक़ किया जाता है... क्योंकि ज़माना ही ख़राब है... पर इसका भुक्तभोगी भी जडमाना है अविश्वास से पैदा हुआ complication ..और उसकी नियति एक और बड़ी संवेदनहीनता को जन्म देती हूई
ऐसे ही एक रेल दुर्घटना ग्रस्त हो जाती है .. आनन् फानन में रेल में सवार एक यात्री जो की दुर्घटना की चपेट में आ जाता है.. अपनी परेशानी और दुःख व सहायता के लिए अपने सबसे नजदीकी मित्र को ( जो कि पेशे से एक पत्रकार है और उस वक़्त अपने कार्यालय में है को ) फ़ोन करता है और बताता है की कि अभी अभी यहाँ अमुक जगह पर रेल दुर्घटना हूवी और मैं उसमे फंसा हूँ ..पर पत्रकार मित्र जो कि रोज बुरी से बुरी खबर सुनने का आदी हो चुका है..चिल्ला कर अपने ऑफिस में इत्त्ल्ला करता है कि नोट करो अमुक जगह रेल दुर्घटना हूवी है और कार्यालय में इस सन्दर्भ में आदेश देने लगता है की खबर कही और ना छपे पहले यही से ... और मित्र को कहता है कि ज़रा बाद में फ़ोन करता हूँ .. मित्र चुपचाप अपनी व्यथा पर रोता है .. और अन्य जगह पर फ़ोन मिलाता है.. तो देक्खा .. कैसे आगे बढ़ने की दौड़ में मित्र कि परेशानी नजरअंदाज हो गयी और संवेदना अपनी मौत पर अकुला गयी ....

उसी तरह एक परिवार जो कि अपने कुलपुरोहित का बहुत सम्मान और प्रेम करता है... हर सुख दुःख में अपने पुरोहित को याद करता है | और पुरोहित के हर सुख दुःख में उसका पूरा साथ निभाता है... वही महिला जो कि अपने हाथो पुरोहित के पाँव पगारती है..भोजन करवाती है... पुत्रिया और पुत्र भी उनकी खातिर में कोई कमी नहीं छोड़ते .. एक तो पुरोहित .. दूसरा अपने पडोसी .. तीसरा कई वर्षो से साथ साथ परिवारों ने हर ऋतुवो को आते जाते देखा तो एक अपनापन अच्छाखासा .. कम से कम बाहरी तौर पर दिखाई देता .. और उसी महिला कि मौत पर तथाकथित कुलपुरोहित को अचानक आना परता है ..मृत्योपुरांत किये जाने वाले संस्कारों के लिए... पंडित जी को अपने अन्या जजमान दिखाई दे रहे है... जिनको मोटी मुर्गी कहा जा सकता है.. जो कि इस अचानक के संस्कारो की वजह से हाथो से छूट सकते है ..पुत्रिया जिनके जीने का सहारा जिनका सहारा और जिनकी माँ रुपी सबसे प्यारी सहेली इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी .. इस गम से व्याथित अपने जीवन को त्यागने का तक विचार करती हूवी.. जिनके लिए माँ कभी मर नहीं सकती... अभी अभी का एक दम ताज़ा घाव जिसको वो स्वीकार नहीं पा रही हैं .. फिर भी आखिरी बार अपनी सुहागवती माँ को सोलह श्रिंगार कराती हूवी.. और तभी जजमान मोटी मुर्गी का ख्याल आया पुरोहित को .. और उसने कफ़न एकदम लडकियों के ऊपर से फैंका और कहा .. शव को इस कफ़न के अन्दर डालो .. अचंभित सी लडकिया ..जो कि अभी माँ कि मृत्यू पर भी विश्वास नहीं कर पा रही है .. पूछती है क्या कहा आपने .. पुरोहित कहता है ..शव को धीरे धीरे कफ़न के अन्दर खिसकाओ .. दौड़ती भागती दुनिया में संवेदनाओं का होता इतना गहरा ह्रास .. वो बच्चिया उस पुरोहित की बात पर बहुत व्याकोल हो उठती है... वो देह एक मिनट में ही शव के अलावा कुछ नहीं रहती उस पुरोहित के लिए जो उस महिला के घर यदा कदा आ कर, भोजन चट कर जाता था | यह भी ना सोचा जा सका उस पुरोहित से कि ये तो बेटिया है उस मां की ..और इनसे , उनके लिए शव कहना कहा तक शोभा देगा.. .. क्या यही संवेदनाये है मानव की... कितना स्वार्थी हो गया है इंसान .. क्या होगा इस स्वार्थी समाज का .. ........

.................जहाँ एक बचपन का मित्र नए मित्रो की चाह में अपने जिगर के टुकड़े जैसे मित्र को अपने से अलग कर दुनिया की भीड़ में यह कह के चला जाता है की उसे नए मित्र मिल जायेंगे .... और उस से सम्बन्ध विच्छेद कर देता है बिना किसी अपराध के .. कितना प्रक्टिकल है ये समाज .. ऐसे समाज में अगर संवेदनाये ही ना हो तो लगता है ज्यादा अच्छा होता होगा .. जिनकी संवेदनाये शून्य है ..न्याय भी उन्ही को मिलता है... क्या ऐसे समाज में न्याय की कामना भी की जा सकती है??... जो न्याय भी संवेदनहीन हो .. ..

10 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

Anonymous said...

सच्ची और अच्छी सोच - प्रेरक आलेख.

shama said...

Afsos...lekin aisa hota hai..

saurabh said...

nice......

kshama said...

Exllent! Anek shubhkamnayen!

संजय भास्‍कर said...

सच्ची और अच्छी सोच - प्रेरक आलेख.

Anurag Geete said...

ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है... इसी तरह तबियत से लिखते रहिये, हिंदी में आपका लेखन सराहनीय है, धन्यवाद

Anonymous said...

true

Unknown said...

sabse pahle...bahut bahut shubhkamnayen achhe lakhan k liye!
spashth lakhen or saral lakhen ke liye bahut bahut badhai bahut dino baad kuch achha padne ko mila...iske liye ..Jai HO Mangalmay HO

Nitikasha/ Dr Nutan said...

thanks to all my well wishers for encouraging me...