Followers

Saturday, October 9, 2010

तू कौन ? - एक पागल की पीड़ा ? Dr Nutan Gairola

तू कौन ? - एक पागल की पीड़ा ?



चिंतन एक पागल के मन का



मन रे पागल मन
कभी इस डाल से बंधता
तो कभी दूर छिटकता
तो कभी इस पात पे होता
तो कभी उस शाख से फंसता
कभी तुझे  सड़कों  पे देखा
तो कभी मिट्टी से लोटा

मैंने देखा है तुझे नाचते इठलाते
अपनी धुन में गुनगुनाते
तो कभी बुझे मन से चुप
अपनी धुन में खोया
गुमसुम सा किसी
दुकान के नीचे सोया
कभी किसी मकान के पीछे
कागज के चिथड़े पर
कुछ अंकित करता हुवा
यूँ कि जैसे कोई
ख़त लिखता  हुवा
जो दर्द कोई न समझे
उस दर्द को बयाँ करता  हुवा  

मन ऐ मन मैंने पाया है
तुझे भीड़  में या कभी सुनसान में
तू चिल्लाता  हुवा  सड़क पर
कभी किसी राहगीर पर
बेवजह गुर्राता हुवा
यह वजह बेवजह नहीं
यह उस घुटन का
उस तड़पन का
उस छटपटाहट का
उस चुभन का
अहसास है जो उस मन की
तुमने कभी सुनी न  देखी 

कभी तेरे दर्द का
किसको अहसास रहा
तू दर्द में रोता रहा
देख यह कोई हँसता रहा
तू जब भी  पीड़ा  से छटपटाता रहा
देख यह कोई तुझे थप्पड़ लगाता रहा
तू दर्द सारे बीती बाते,
बीती यादे दिल में छुपाये
अपने दिल के दर्द के अहसासों को दबाये
गलियों में हँसता गाता रहा है

तेरी उलझन पीड़ा का उफान
जब हद से पार हुवा है
तेरा क्या कसूर
तुने बहुत रोका
भावनाओं के उन  सैलाबों  को
अजीबो गरीब  ख्यालातों  को
जब बांधे नहीं बंधा, तो टूट गया
तूफ़ान  हवा  में उठ गया,
और फिर तू रोता
हँसता  गिड़गिडाता
गली में चीखता चिल्लाता,
कभी डंडा पटकते तो
कभी पत्थर उठाये
एक पांव में जूता तो
दुसरे में  मोजा  लगाये
अपनी भावनाओं पे
दुसरी भावनाओं को दर्शाता हुवा,
रोता मन तू हँसता गाता हुवा ,
फटे  चिथड़ों  से
मटमैला तन दर्शाता हुवा,
कभी किसी हास्य नाटक के
कमेडियन पात्र की तरह
तो कभी किसी विरहन वियोगी
या फिर योगी
कभी जेंटलमैन की तरह,
अपने गम को छुपाये
किसी से हाथ मिलाता हुवा
रोता मन तू हँसता गाता हुवा|
सोचो तो तू कौन ?
एक पागल या एक आ
म इंसान ?




















11 comments:

निर्मला कपिला said...

अज के समय मे शायद हर आदमी ही पागल है। पागल के माध्यम से आदमी के दिल की कशमकश को अच्छे शब्द दिये हैं। शुभकामनायें

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) said...

मन की उड़ान को आपने बहुत यत्नपूर्वक शब्दों में बाँधा है!
--
साहित्यश्री डॉ.नूतन गैरोला जी को बधाई!
--

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

धन्यवाद निर्मला जी .. नवरात्रि पर शुभकामनाएं

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

पागल मन वाला आम इंसान ...कविता पढले हुए कभी किसी पागल का चेहरा सामने आता है जो कविता में व्यक्त किन्ही कारणों से विक्षिप्त स हो गया हो ....

बहुत मार्मिक प्रस्तुति ...शैलाबों को सैलाबों कर लीजिए ..

वन्दना said...

इसी पीड़ा में तो सभी कुलबुलाते रहते हैं ।

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (11/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

धन्यवाद वंदना जी... शुभसंध्या .. शुभनवरात्रि पर्व

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत अच्छी रचना ...

mahendra verma said...

एक मनोवैज्ञानिक कविता ...जिसमें कई भाव छुपे हुए हैं...सशक्त रचना...बधाई।

Arvind Mishra said...

मन रे तू है बड़ा छलिया -अच्छी लगी कविता !

संजय भास्कर said...

सशक्त रचना...बधाई।
नवरात्रि की आप को बहुत बहुत शुभकामनाएँ ।जय माता दी ।
ब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.

himani said...

ek admi ke man ko bahut achi tareh aapne apne sabdo se sajoya hai.......sach me kavita padker her koi ek baar apne man ke baare me jarur sochega........dhanyabadh buwa ji......subh ratri....