मयंक के जन्म दिन पर १८ / सितम्बर / २०१०
पंक्तिया भाई श्री प्रकाश जी के सौजन्य से
पिक्चर प्लेट मैंने बहुत जल्दी में बनायीं थी .. रात १७ / सितम्बर /२०१०
ये पोस्ट फेसबुक में . १८ / सितम्बर / २०१०
आशाओं की नव कोंपल सा..
आम्र मंजरी की महक सा..
प्रभात के सुकुमार मुख सा..
महके हर पल जीवन..
फूलों सा बहारों सा ...
*स्वागत* * स्वागत* * स्वागत*
फेसबुक की मित्रमंडली की ओर से मयंक को जन्मदिन मुबारक मनमोहन जी को और परिवार को बधाई व शुभकामनाएं ..
मयंक जीवन में नित प्रगति हो ..जीवन खुशियों से भरपूर हो .. दीर्घायु भवः
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Tuesday, October 12, 2010
Sunday, October 10, 2010
खून यकीन का ( स्वरचित - डॉ नूतन गैरोला )
उनकी गुफ्तगू में साजिशों की महक आती रही ,
शहर-ए-दिल में फिर भी उनकी सूरत नजर आती रही |
शिकायतों के पुलिंदे बांध लिए थे मैंने ,
मुंह खोला नहीं कि उनको ऐब नजर आने लगे |
पीठ पे मेरे खंजरो की साजिशें चलती रही,
मौत ही मुझ को अब बेहतर नजर आने लगी |
यकीनन यकीन का खून बेहिसाब बहने लगा ,
लहू अश्क बन नजरों में जमने लगा |
झूठे गुमान भी जो वो मुझमे भरने लगे ,
चाह कर भी मौत मुझको मयस्सर न होने लगी |
कोई जा के कह दे मेरी मौत से कि वो टल जाये ,
कि जीने के तरीके अब मुझे भी आने लगे है ||
......*....* डॉ नूतन गैरोला .. १७ / ०५ / २०१०.......*...*....
Saturday, October 9, 2010
तू कौन ? - एक पागल की पीड़ा ? Dr Nutan Gairola
तू कौन ? - एक पागल की पीड़ा ?
एक पागल या एक आम इंसान ?
![]() |
| चिंतन एक पागल के मन का |
मन रे पागल मन
कभी इस डाल से बंधता
तो कभी दूर छिटकता
तो कभी इस पात पे होता
तो कभी उस शाख से फंसता
कभी इस डाल से बंधता
तो कभी दूर छिटकता
तो कभी इस पात पे होता
तो कभी उस शाख से फंसता
कभी तुझे सड़कों पे देखा
तो कभी मिट्टी से लोटा
तो कभी मिट्टी से लोटा
मैंने देखा है तुझे नाचते इठलाते
अपनी धुन में गुनगुनाते
तो कभी बुझे मन से चुप
अपनी धुन में खोया
गुमसुम सा किसी
दुकान के नीचे सोया
अपनी धुन में गुनगुनाते
तो कभी बुझे मन से चुप
अपनी धुन में खोया
गुमसुम सा किसी
दुकान के नीचे सोया
कभी किसी मकान के पीछे
कागज के चिथड़े पर
कुछ अंकित करता हुवा
यूँ कि जैसे कोई
ख़त लिखता हुवा
जो दर्द कोई न समझे
उस दर्द को बयाँ करता हुवा
कागज के चिथड़े पर
कुछ अंकित करता हुवा
यूँ कि जैसे कोई
ख़त लिखता हुवा
जो दर्द कोई न समझे
उस दर्द को बयाँ करता हुवा
मन ऐ मन मैंने पाया है
तुझे भीड़ में या कभी सुनसान में
तू चिल्लाता हुवा सड़क पर
कभी किसी राहगीर पर
बेवजह गुर्राता हुवा
तुझे भीड़ में या कभी सुनसान में
तू चिल्लाता हुवा सड़क पर
कभी किसी राहगीर पर
बेवजह गुर्राता हुवा
यह वजह बेवजह नहीं
यह उस घुटन का
यह उस घुटन का
उस तड़पन का
उस छटपटाहट का
उस छटपटाहट का
उस चुभन का
अहसास है जो उस मन की
तुमने कभी सुनी न देखी
अहसास है जो उस मन की
तुमने कभी सुनी न देखी
कभी तेरे दर्द का
किसको अहसास रहा
तू दर्द में रोता रहा
देख यह कोई हँसता रहा
तू जब भी पीड़ा से छटपटाता रहा
देख यह कोई तुझे थप्पड़ लगाता रहा
तू दर्द सारे बीती बाते,
तू दर्द में रोता रहा
देख यह कोई हँसता रहा
तू जब भी पीड़ा से छटपटाता रहा
देख यह कोई तुझे थप्पड़ लगाता रहा
तू दर्द सारे बीती बाते,
बीती यादे दिल में छुपाये
अपने दिल के दर्द के अहसासों को दबाये
गलियों में हँसता गाता रहा है
अपने दिल के दर्द के अहसासों को दबाये
गलियों में हँसता गाता रहा है
तेरी उलझन पीड़ा का उफान
जब हद से पार हुवा है
तेरा क्या कसूर
तुने बहुत रोका
भावनाओं के उन सैलाबों को
अजीबो गरीब ख्यालातों को
जब बांधे नहीं बंधा, तो टूट गया
तूफ़ान हवा में उठ गया,
और फिर तू रोता
हँसता गिड़गिडाता
गली में चीखता चिल्लाता,
कभी डंडा पटकते तो
कभी पत्थर उठाये
एक पांव में जूता तो
दुसरे में मोजा लगाये
अपनी भावनाओं पे
दुसरी भावनाओं को दर्शाता हुवा,
रोता मन तू हँसता गाता हुवा ,
फटे चिथड़ों से
जब हद से पार हुवा है
तेरा क्या कसूर
तुने बहुत रोका
भावनाओं के उन सैलाबों को
अजीबो गरीब ख्यालातों को
जब बांधे नहीं बंधा, तो टूट गया
तूफ़ान हवा में उठ गया,
और फिर तू रोता
हँसता गिड़गिडाता
गली में चीखता चिल्लाता,
कभी डंडा पटकते तो
कभी पत्थर उठाये
एक पांव में जूता तो
दुसरे में मोजा लगाये
अपनी भावनाओं पे
दुसरी भावनाओं को दर्शाता हुवा,
रोता मन तू हँसता गाता हुवा ,
फटे चिथड़ों से
मटमैला तन दर्शाता हुवा,
कभी किसी हास्य नाटक के
कमेडियन पात्र की तरह
तो कभी किसी विरहन वियोगी
या फिर योगी
कभी जेंटलमैन की तरह,
अपने गम को छुपाये
किसी से हाथ मिलाता हुवा
रोता मन तू हँसता गाता हुवा|
सोचो तो तू कौन ?कभी किसी हास्य नाटक के
कमेडियन पात्र की तरह
तो कभी किसी विरहन वियोगी
या फिर योगी
कभी जेंटलमैन की तरह,
अपने गम को छुपाये
किसी से हाथ मिलाता हुवा
रोता मन तू हँसता गाता हुवा|
एक पागल या एक आम इंसान ?
Tuesday, October 5, 2010
बस इतनी सी चाहत-----DR Nutan
.
न मुझे यश चाहिए, ना मुझे नाम ,
ना मुझे कीर्ति चाहिए ना मुझे दौलत ख़ास
शुकून भरी जिंदगी हो, हो आत्मविश्वास
निश्छल हंसी हो, गमो में कमी हो,
न मुझे यश चाहिए, ना मुझे नाम ,
ना मुझे कीर्ति चाहिए ना मुझे दौलत ख़ास
शुकून भरी जिंदगी हो, हो आत्मविश्वास
निश्छल हंसी हो, गमो में कमी हो,
दो जून की रोटी हो और हो अपनों का प्यार.. ,,,nutan.. 03/06/2010
फोटो गूगल - ये बच्चा बाल श्रमिक है .. किसी मोटर वर्क शॉप में काम करता है .. इसकी आँखों में कुछ विशेष भाव और कुछ अजीब सा दर्द है .. क्या हम महसूस कर सकेंगे की ये बच्चे क्या चाहते है जिसके लिए इनेह अपना बचपन खोना पड़ता है काम के पीछे | डॉ नूतन . ५ / १० / २०१०
Tuesday, September 28, 2010
मेरी माँ .. -- Dr Nutan - NiTi
मेरी माँ
रात के सघन अंधकार में,
तेरे आंचल के तले,
थपकियो के मध्य,
लोरी की मृदु स्वर-लहरियों के संग,
मैं बेबाक निडर सो जाती थी माँ |
और नित नवीन सुबह सवेरे
उठो लाल अब आंखें खोलो
कविता की इन पंक्तियों के संग
वात्सल्य का मीठा रस घोले
बंद पलकों पे स्नेह चुंबन देती
मेरे दिन और मेरी रातों को
सार्थक बना देती थी तू माँ
बुरे वक़्त में भी साहस से
सदा सत्य का थामो हाथ,
खुद एक रोटी कम खा लेना पर,
परहित के लिए बढ़ाए रखना हाथ
नैतिकता के मूल्य को स्वीकारो
ऐसी सीख सिखाती थी माँ ||
कर्मठ, साहस, दया,ज्ञान ,
सम्मान, सहायता, जन कल्याण
नित नैतिकता-मानवता का सिंचन
कर किया हमारा भी उद्धार ||
तुम सुन्दरता की मूरत थी
तुम देवी की सूरत थी
तूम सतत प्रेमिका पत्नी थी
तुम वात्सल्य की मूर्ति थी
प्रेम आलिंगन में भी रख हमको तुम
कठिनतम राहों पर ऊंचा उड़ो
ऐसा हौन्श्ला भरती थी माँ ||
सहज सुंदर शालीन कोमल
ऐसी मेरी जननी माँ
मृत्योपरांत भी सदा की तरह
मन-भावन रही मुस्कराती माँ
दुःख में भी सुख का अहसास भरो
ऐसी सीख सिखाती माँ ||
तुम माँ सदा संग मेरे हो
आदर्श तुम्हारे खो दूं गर
ऐसा दिन न आए माँ कि तुमसे जुदा हो जाऊं तब मै
..नहीं माँ नहीं ..
माँ मैं तेरी दी प्रेरणा को दोहराऊंगी
आदर्श मार्ग पर चलते, मै सदा-सदा मुस्कराऊंगी ||
माँआआआअ ~~~~~~~~~~~~
तेरे आंचल के तले,
थपकियो के मध्य,
लोरी की मृदु स्वर-लहरियों के संग,
मैं बेबाक निडर सो जाती थी माँ |
और नित नवीन सुबह सवेरे
उठो लाल अब आंखें खोलो
कविता की इन पंक्तियों के संग
वात्सल्य का मीठा रस घोले
बंद पलकों पे स्नेह चुंबन देती
मेरे दिन और मेरी रातों को
सार्थक बना देती थी तू माँ
बुरे वक़्त में भी साहस से
सदा सत्य का थामो हाथ,
खुद एक रोटी कम खा लेना पर,
परहित के लिए बढ़ाए रखना हाथ
नैतिकता के मूल्य को स्वीकारो
ऐसी सीख सिखाती थी माँ ||
कर्मठ, साहस, दया,ज्ञान ,
सम्मान, सहायता, जन कल्याण
नित नैतिकता-मानवता का सिंचन
कर किया हमारा भी उद्धार ||
तुम सुन्दरता की मूरत थी
तुम देवी की सूरत थी
तूम सतत प्रेमिका पत्नी थी
तुम वात्सल्य की मूर्ति थी
प्रेम आलिंगन में भी रख हमको तुम
कठिनतम राहों पर ऊंचा उड़ो
ऐसा हौन्श्ला भरती थी माँ ||
सहज सुंदर शालीन कोमल
ऐसी मेरी जननी माँ
मृत्योपरांत भी सदा की तरह
मन-भावन रही मुस्कराती माँ
दुःख में भी सुख का अहसास भरो
ऐसी सीख सिखाती माँ ||
तुम माँ सदा संग मेरे हो
आदर्श तुम्हारे खो दूं गर
ऐसा दिन न आए माँ कि तुमसे जुदा हो जाऊं तब मै
..नहीं माँ नहीं ..
माँ मैं तेरी दी प्रेरणा को दोहराऊंगी
आदर्श मार्ग पर चलते, मै सदा-सदा मुस्कराऊंगी ||
माँआआआअ ~~~~~~~~~~~~
My Mother - Mrs Rama Dimri
मेरी माँ "श्रीमती रमा डिमरी " पहाड़ी नथ में |
कविता लिखी गयी माँ की तीसरी वर्षी पर .. आज श्राद्धपक्ष में माँ की पुण्य तिथि पर (तिथि -६ )
कविता लिखी गयी माँ की तीसरी वर्षी पर .. आज श्राद्धपक्ष में माँ की पुण्य तिथि पर (तिथि -६ )
Tuesday, September 21, 2010
खुद से खुद की बातें .. Dr Nutan Gairola
खुद से खुद की बातें
मेरे जिस्म में जिन्नों का डेरा है |
मेरे जिस्म में जिन्नों का डेरा है |
कभी ईर्ष्या उफनती,
कभी लोभ, क्षोभ
कभी मद - मोह,
लहरों से उठते
और फिर गिर जाते ||
पर न हारी हूँ कभी |
सर्वथा जीत रही मेरी,
क्योंकि रोशन दिया
रहा संग मन मेरे,
मेरी रूह में ,
ईश्वर का बसेरा है ||
स्वरचित - द्वारा - डॉ नूतन गैरोला 11-09-2010 17:32
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