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Tuesday, July 19, 2011

आंटी रुक्मणि - लघुकथा



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रुक्मणि जी जो कि मेरे पड़ोस में रहती हैं, अधेड़ उम्र की भद्र महिला हैं| आज मैं उनके साथ खरीदारी के लिए आयी थी|  खरीदारी के पश्चात दूकान के काउंटर पर खड़े किशोर ने रुक्मणि जी को पुकारा -“ये लीजिए आंटी - पेमेंट हो चुका है | आप अपना सामान ले लीजिए|” किन्तु रुक्मणि जी को जैसे किसी जहरीले भंवरे ने आ कर डंस दिया हो, वह बुरी तरह  आग बबूला हो गयी- “ क्यों लड़के बात करने की तमीज नहीं? जिसे देखो आंटी कह देते हो | दीदी जैसा अपनेपन से भरा कोई शब्द बचा नहीं है क्या?” कहते हुवे गुस्से से अपना सामान लड़के के हाथ से लगभग छीन सा लिया|  लड़का हक्काबक्का रह गया|
                                    मैं पूछ ही बैठी- क्यों रुक्मणि जी! आप इतना नाराज क्यों हो गयी हैं? ऐसा तो उसने कुछ नहीं कहा|. सुनना था कि वो फट पड़ी - “सब्र की भी एक सीमा होती है| आज कल के लोगों को देखिये, क्या आसान शब्द मिल गया है| जिसे देखिये आंटी कह देते हैं जैसे दीदी, भाभी, बहन कोई रिश्ता बचा ही ना हो| अब मुझे ही देखिये सत्रह  साल की हुवी ही ना थी कि शादी हो गयी| पतिदेव में और मुझमे उम्र का फासला भी दस साल का है और साहब कुटुंब में अपने पीडी के सबसे छोटे सदस्य हैं  - सारी भाभियों के सबसे लाडले छोटे देवर हैं| उनकी भाभियाँ उनको आते जाते छेडतीं हैं  खूब मजाक करती हैं वो उनके सामने बच्चे के सामान हैं और मुझे देखिये- माँ, पिता चाचा, मौसी, बुवा की उम्र के लोग ससुराल में मेरे जेठ जेठानियाँ हैं| मेरी उम्र वाले जो मेरी सहेलियां, नन्द ,देवर  जैसे होने चाहिए थे, सभी मुझे चाची कहतें है, मैं उनके साथ हंसी मजाक गपशप करना चाहूँ तो वो बोलते हैं - आप तो चाची हैं, आप बुजुर्गों के साथ जाइये| अब बोलिए जेठ और जेठानियों जो कि मेरी चाचा, चाची की उम्र की हैं, उनसे मैं क्या हँसी मजाक करूं , बस घूँघट किया रहता है| शादी होते ही दादी, नानी बन गयी मैं|   लगा मानों मेरे जीवन में जवानी जैसी कोई चीज आई ही नहीं| मैं बचपन से सीधे बूढी हो गयी| मन में बहुत कोफ़्त होती|
                                            वह आगे बोलीं - पतिदेव  ने एक दिन कहा कि शहर तबादला हो गया है| मुझे  काफी राहत मिली| सोचा अब गाँव के बुड्ढे रिश्तों से छुट्टी मिलेगी, मेरे दिन फिरेंगे, मुझे भी अपनी उम्र के हिसाब के रिश्ते मिलेंगे, लेकिन नहीं, ऐसा होना न था| शहर तो आ गयी, लेकिन गाँव से शहर पढ़ने आये रिश्तेदार विद्यार्थियों ने मेरे सपनों में पानी फेर दिया| वहाँ भी वो मुझे चाची, दादी कहते और उनकी सहेलियां और दोस्त भी यही रिश्ते मुझ पर लगाते| जहाँ भी शादी ब्याह में जाती तो मेरी हमउम्र  को ही नहीं, यहाँ तक की मुझसे काफी बड़ी महिलाओं को लोग दीदी, भाभी कहते और मुझे आंटी| दिल कट कर रह जाता| किस दिन मैं अपनी उम्र के रिश्ते पा सकुंगी|
                                    मैं रुक्मणि जी की बातें सुनती चली जा रही थी| वह भी आज अपने मन की भड़ास मुझसे कह कर हल्का कर रही थी| वह बोल रही थी मैंने अपनी बचपन जवानी आंटी आंटी सुन कर गुजार दी, अब मैं अपने साथ ये अन्याय नहीं होने दूंगी……
और वह बोले जा रहीं थी ………….
   




लेखक - डॉ नूतन डिमरी गैरोला   १९ / ०७ / २०११  २:२० दोपहर                

30 comments:

शालिनी कौशिक said...

बहुत बड़ी त्रासदी है ये उनके साथ और हमारे समाज में बहुत सी हैं ऐसी .

सदा said...

अक्‍सर ऐसा होता है ... बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Patali-The-Village said...

बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

आदरणीया डॉ.नूतन जी

सादर सस्नेहाभिवादन !

अच्छी रोचक लघुकथा है …
आंटी रुक्मणि … म्मेऽऽराऽऽ मतलब रुक्मणि दीदी को समझाइए कि लोग तो बस … हैं ही ऐसे ! :)

श्रेष्ठ सृजन के लिए साधुवाद !

हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

राजस्थानी भाषा में मेरी एक ग़ज़ल पढने-सुनने के लिए मेरे राजस्थानी ब्लॉग ओळ्यूं मरुधर देश री…
पर आइए न … … …
मैं रचनाओं का अर्थ भी देता हूं , समझने में कोई परेशानी नहीं होगी …

आपकी प्रतीक्षा रहेगी
- राजेन्द्र स्वर्णकार

मनोज कुमार said...

यह एक तल्क़ हक़ीक़त है। महिलाएं ही नहीं पुरुषों के साथ भी ऐसा होता है कि भैया ऐर ब‍उआ के बाद एकाएक अंकल सुनना पचता नहीं।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) said...

आपकी प्रवि्ष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल उद्देश्य से दी जा रही है!

ताऊ रामपुरिया said...

एक ना एक दिन ये झटका सभी को लगता है, चाहे स्त्री हों या पुरूष, पुरूषों को जब पहली बार अंकल जी संबोधन से पुकारा जाता है उस रोज उनकि हालत रुकमणी जी से भी बदतर होती है.:)

बहुत सुंदर वॄतांत, रुकमणी बेन के साथ सहानुभुति है.

रामराम.

vidhya said...

bahut sundar

प्रवीण पाण्डेय said...

आदत डाल लेनी चाहिये, कब तक चिर युवा बने रहेंगे।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सच है ..जैसे ही शादी होती है तो पुरुष सब अंकल और स्त्रियां सब आंटी हो जाती हैं ...सबसे बड़ी बात कि हम उम्र बच्चे भी आंटी अंकल कहने लगते हैं :):)

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन said...

गज़ब भयो रामा ....

Navin C. Chaturvedi said...

एक ऐसा घटनाक्रम जो हमारे समाज में अक्सर ही देखने को मिल जाता है| वाक़ई ऐसे व्यक्तियों की पीड़ा समझनी चाहिए|

डॉ0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ (Dr. Zakir Ali 'Rajnish') said...

नूतन जी, बहुत ही सार्थक रचना। बधाई इस शानदार लघुकथा के लिए।

------
बेहतर लेखन की ‘अनवरत’ प्रस्‍तुति।
अब आप अल्‍पना वर्मा से विज्ञान समाचार सुनिए..

निवेदिता said...

ये मात्र एक कहानी नहीं अपितु हम सबकी दुखती रग है .....

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

the best

Er. Diwas Dinesh Gaur said...

हाँ है तो यह सच्चाई...अब इसे व्यंग कहें या पीड़ा, ऊपर वाला ही जाने...

यहाँ तक की दसवीं बारहवीं कक्षा में पढने वाले छात्र मुझे कई बार अंकल कह देते हैं, जबकि मेरी आयु तो केवल छब्बीस वर्ष है...दसवी पास किये अभी मुझे दस वर्ष ही हुए हैं और उन लोगों के मूंह से अंकल सुनना अजीब लगता है| समझ नहीं आता ऐसा क्यों?

पी.एस .भाकुनी said...

रुक्मणी जी की मनोदश को समझ सकता हूँ ,एक बार जो ठप्पा लग चुका है उसे तो झेलना ही होगा ,
आभार उपरोक्त पोस्ट हेतु...........

दिगम्बर नासवा said...

ये रुक्मणि जी के मन की भड़ास ही है या कुछ दोष समाज का भी है जिन्होंने छोटी उम्र में उनकी शादी करवा दी ....
पर जो भी हो ... जब हो ही गयी जल्दी शादी तो उसे मानने में कोई बुराई नहीं होनी चाहिए ... आंटी कहना भी कोई बुरी बात नहीं ...

Rakesh Kumar said...

चाहत भी क्या क्या गुल खिलाती है,यह रुक्मणि जी की कहानी से परिलक्षित हो रहा है.कभी कभी इसके उल्टे की भी चाहत होती है .जैसे कोई बड़ा कहलवाना चाहे पर उसे कोई बड़ा ही न कहे तो भी बड़ी कोफ़्त होती है.किसी का नाम 'पप्पू' पड़ा हो या 'छुटकी' ,जब उनके बच्चे भी इन्हीं नामों का प्रयोग करें तो दयनीय स्थिति हो जाती है.


आपका हार्दिक स्वागत है मेरी नई पोस्ट पर.

अनामिका की सदायें ...... said...

prabhavshali prastuti...sach me apne uddeshye me safal abhivyakti.

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत ही शिक्षाप्रद बधाई और शुभकामनायें |

Ravi Rajbhar said...

Hahahahha........ Rukmadi aunti ji.....ohh mera matlab bhabhi ji ko boliye !

Badi-2 sahro me chhoti -2 bate hoti rahti hain.:)

amrendra "amar" said...

man me hichkole leti hui ...........
sunder prastuti

veerubhai said...

आंटी शब्द उम्र बोध ही नहीं कराता दूरी का भी एहसास देता है .चाची में फिर भी अपना पन है .कल की जो नायिकाएं हैं वे आज माँ के रोल में है .रोल कोई भी बुरा नहीं है सहज स्वकार्य होना चाहिए .जवान या बूढा आदमी मन से होता है किसी संबोधन से नहीं -देखिए बुढ्ढा होगा तेरा बाप .नारी मनो विज्ञान की परतों को खोलता सहज वार्ता ,संवाद प्रधान लघु कथा .

Babli said...

बहुत सुन्दर और शानदार लघुकथा लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!

abhi said...

मेरे कॉलोनी में एक साइबर कैफे है,जहाँ मैं प्रिंट वैगरह लेने के लिए जाते रहता हूँ...वहां भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ, कैफे की जो मालकिन है, वही वहां बैठती हैं, एक दिन युहीं मेरे मुहं से आंटी निकल गया...
वो मुस्कुरा के बोलीं - तुम्हे मैं इतनी बड़ी दिखती हूँ?दीदी कह कह सकते हो चाहो तो..:)

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

आदरणीया डॉ नूतन गैरोला जी अक्सर ये सब देखा जाता है आप से बड़ी भी जब आंटी या अंकल कह जाते हैं तो कुछ अजीब लगता है कुछ तो अपने को अमृत पिए समझते हैं -सुन्दर लघु कथा सार्थक व्यंग्य

आभार आप का -बधाई भी
भ्रमर ५

श्रीप्रकाश डिमरी /Sriprakash Dimri said...

बहुत ही समसामयिक चुटीली पोस्ट है आपकी ...समय का आयना दिखाने वाला वृत्तांत ...
शुभकामनाएं !!!

रश्मि प्रभा... said...

वैसे यह आदत बुरी है...