सोचती हूँ कितना दर्द होगा उन कैदीयों का, जो कभी बिना अपराध के ही परिस्तिथिजनित, असत्य साक्ष्यों की वजह से मुजरिमकरार किये जाते हैं और वो अपनी सफाई में कोई सबूत तक नहीं पेश कर पाते और भेज दिए जाते हैं कालकोठरी में जीवन बिताने के लिए, फिर उम्र के आखिरी पड़ाव में उनको उनके अच्छे व्यवहार के लिए पेरोल पर छोड़ दिया जाता है| वो किन मानसिक यंत्रणाओं से गुजरते है जबकि उनको शारीरिक आघात भी कम नहीं पहुंचाए जा रहे होते है|| जेल के कैदी मानसिक रोगों से भी पीड़ित होते हैं जो बहुत लंबे समय तक अपना जीवन कैद में बिता रहे होते हैं उनमें “स्टॉकहोम सिंड्रोम” जैसी एक साईकोलोजिकल स्तिथि उत्पन्न हो जाती है और कैदी जेल में दी जा रही यंत्रणाओं को व वहाँ के माहोल को पसंद करने लगता है….मानव मन, कैद की स्तिथि में कैसे प्रतिक्रिया करता है यह उसका उदाहरण है | फिर सोचती हूँ जमींदारी और सामंतवाद में कभी कभी जबरदस्ती दुल्हन बना ली गयी महिलायें भी क्या ऐसा ही महसूस करती थी होंगी……………… नूतन (नीति) |
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Wednesday, June 22, 2011
आजन्म कारावास और पेरोल पर कैदी - डॉ नूतन डिमरी गैरोला
Thursday, June 16, 2011
चंद्रग्रहण /Lunar Eclipse- 15 june 2011 –My Clicks My Photos- Dr Nutan Gairola
Saturday, June 11, 2011
क्या भटका रहे हैं बाबा और अन्ना - जागो भारत जागो
अरे! जहाँ देखो लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं …क्या इन्हें इतना नहीं पता कि भ्रष्टाचार तो जनता को आसानी से प्राप्त एक बहुत बड़ी सुविधा है जिसके रहते हर काम आसानी से हो जाते हैं | फिर ऐसा क्यूं … क्यूँ उठा रहे हैं ये आवाज … अन्ना जी और बाबा जी भी नाहक ही भूख हड़ताल में बैठे रहे / हैं …. और अपने दस नहीं दस हज़ारों दुश्मन बड़ा रहे हैं … हमें गर्व होना चाहिए के हम ऐसी जगह/ देश में हैं जहाँ हर कठिन से कठिन काम भी इतनी सुगमता से संभव हो जाता है ज्यूं फूंक से तिनका उड़ाना…. लक्ज़री कार फरारी ( अपना देश ) में बैठ कर भ्रष्टाचार के ईधन से हम मक्खन सी रोड ( असंवैधानिक /नाजायज /भ्रष्ट कार्य ) पर फिसलते जा रहे हैं और अपनी सुखद यात्रा पर इतराते हुवे अपनी मंजिल ( अनंत पैसों का जमावडा नितांत निज स्वार्थ के लिए) की ओर बेरोकटोक अग्रसर हैं … फिर ये बाबा जी और अन्ना जी को क्या हो गया जो मक्खन वाली सड़क पर कांच, गारे, पत्थर फैंक कर रोड़ा उत्तपन कर रहे हैं | छी छी छी.. कोई उन्हें समझाए कि एक ही तो सुविधा इस देश में आसानी से मुहैया है … जो भ्रष्ट लोगों को खूब भाती है… और ताकत से भरपूर राजनीती के कुछ नुमाइंदे इस भ्रष्टतंत्र के पोषक हैं …जिनके चलते आप घूंस कहीँ भी ले या दे सकते हैं … फिर भ्रष्टाचार जैसी सुविधा को अन्ना , बाबा , और जनता क्यों देश से हटाने पर तुले हैं… भ्रष्टाचार जैसी सुविधायें तो आम है .. ये सुविधाएँ आपको खड़े खड़े भी प्राप्त हो सकतीं हैं , कभी मेज के नीचे से , कभी लिफाफों के रूप में , कभी मिठाई के डब्बों में बंद, कभी धूप में किसी निर्माण क्षेत्र में , कभी बंद एयरकंडीसन्ड रूम में | भ्रष्टाचार में पैसे का आदान प्रदान तो आम है ..जिसे घूंस कहते है| देखिये मैं इसके कुछ फायदे सिर्फ थोड़े में ही कह पाऊँगी -
घूंस देने के लाभ -
घूंस लेने के फायदे -
जब आप के पास इतनी घूंस की दौलत हो तो कोई पागल कुत्ते ने काटा है क्या जो बाबा जी और अन्ना जी के साथ आंदोलन में बैठें या उनका साथ दें या खुद आवाज उठायें भ्रष्टाचार के खिलाफ|| आराम से घर में बैठेंगे या फिर कही छुपी गोष्ठी कर आंदोलनकारियों पर डंडे बल्लम की मार कर अश्रु गोलों फैंकवायेंगें या उनके कपडे फाड़ेंगे … लोकतंत्र की सरेआम ह्त्या कर भ्रष्टाचार का साथ देंगे और इसके खिलाफ आवाज लगाने वालों के साथियों रिश्तेदारों पर भी डंडा कर देंगे, ताकि वो आवाज दुबारा ना उठा सके या फिर एन वक्त कोई और बेसरपैर की बात का मुद्दा बना लिया जायेगा जैसे नृत्य विवाद- या अमुक इंसान अपने देश का नहीं है ..और भोलीभाली जनता का ध्यान और चिंतन उस ओर मुड जाए , और असली मुद्दे से वो भटक जाएँ - तो हैं ना भ्रष्टाचार में अजब की ताकत
तो आओ क्यूं ना इस भ्रष्टाचार रुपी देवता की आरती उतारें
जय भ्रष्टाचार देवा, जय भ्रष्टाचार देवा जो कोई तुझको पुजत, उसका ध्यान धरे जय भ्रष्टाचार देवा … तुम निशिदिन जनता का गुणी खून पिए भ्रष्ट लोगन को खूब धनधान्य कियो जय भ्रष्टाचार देवा भ्रष्ट लोग जनता पर खूब खूनी वार कियो दुष्ट भ्रष्ट लोगन को तुम असूरी ताकत दियो जय भ्रष्टाचार देवा जो कोई भ्रष्टी मन लगा के तुमरो गुण गावे उनका काला धन विदेश में सुरक्षित हो जावे जय भ्रष्टाचार देवा
बहुत खेद के साथ कटाक्ष के रूप में उपरोक्त बातें लिखी हैं | जब मैंने पाया सत्याग्रहियों और जनता पर आधी रात को इस तरह से आक्रमण किया गया जैसे आजादी से पूर्व अंग्रेजों के हाथ जलियावाला बाग था| तिस पर कई साथी लेखकों ने सत्याग्रह के खिलाफ, बाबा के खिलाफ,आवाज उठायी … और कुछ अजीब से नए मुद्दे बना डाले …मैं उनसे भी कहना चाहूंगी अभी मुद्दा सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ है.. इस पर राजनीति नहीं चाहिए - सिर्फ और सिर्फ देशहित चाहिए |
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जागो भारत जागो देशहित के लिए आह्वाहन करती यह कविता अन्याय के खिलाफ सब को एकजुट होने के लिए प्रेरित करती है और वीररस से भरपूर है | इसके रचियता श्री अशोक राठी जी हैं जिनकी कर्मभूमि कुरुक्षेत्र है| देश भक्ति की भावना से लबरेज , स्त्री विमर्श पर और जीवन मृत्यु जैसे दर्शन पर आपकी कवितायें खासा आकर्षित करतीं हैं | यहाँ पर देशहित के लिए हुंकार भरती अशोक जी की कविता को सबसे साझा कर रही हूँ श्री अशोक राठी जी जागो भारत जागो देखो आ पहुंचा दुश्मन छाती पर पहले हारा था वो हमसे अब फिर भागेगा डरकर शीश चढ़ाकर करो आरती ये धरती अपनी माता है रक्तबीजों को आज बता दो हमें लहू पीना आता है नहीं डरेंगे नहीं हटेंगे हमको लड़ना आता है | काँप उठा है दुश्मन देखो गगनभेदी हुंकारों से डरो न बाहर आओ तुम लड़ना है मक्कारों से आस्तीन में सांप पलें हैं अब इनको मरना होगा उठो जवानों निकलो घर से शंखनाद अब करना होगा देखो घना कुहासा छाया कदम संभलकर रखना होगा वीर शिवा, राणा की ही तो हम सब संतानें हैं कायर नहीं , झुके न कभी हमने परचम ताने हैं | अबलाओं, बच्चों पर देखो लाठी आज बरसती हाथ उठे रक्षा की खातिर उसको नजर तरसती जागो समय यही है फिर केवल पछताना होगा क्या राणा को एक बार फिर रोटी घास की खाना होगा माना मार्ग सुगम नहीं है दुश्मन अपने ही भ्राता हैं लेकिन मीरजाफर, जयचंदों को अब तो सहा नहीं जाता है ले चंद्रगुप्त सा खड्ग बढ़ो तुम गुरु दक्षिणा देनी होगी महलों में मद-मस्त नन्द को वहीँ समाधि देनो होगी |
चढ़े प्रत्यंचा गांडीव पर फिर महाकाली को आना होगा सोये हुए पवन-पुत्रों को भूला बल याद दिलाना होगा बापू के पथ पर चलने वाले हम सुभाष के भी अनुयायी समय ले रहा करवट अब पूरब में अरुण लालिमा छाई आज दधीचि फिर तत्पर है बूढी हड्डियां वज्र बनेंगी और तुम्हारे ताबूत की यही आखिरी कील बनेंगी सावधान ! ओ सत्ता-निरंकुश अफजल-कसाब के चाटुकारों राष्ट्र रहा जीवंत सदा यह तुम चाहे जितना मारो |
जय भारत माता | |
Monday, June 6, 2011
पतंग इच्छाओं की - डॉ नूतन गैरोला
उसकी पलकों में सपनों की कीलों पर इच्छाएं जीवनभर लटकती रहीं उतरी नहीं जमीं पर ठीक उसी तरह जिस तरह उसके बचपन की पतंग शाखाओं के सलीब पर अटकी रही फड़फड़ाती रही, फटती रही और बचपन अबोध आँखों से पेड़ के नीचे इन्तजार करता रहा डोर का, पतंग का| कितने ही मौसम बदले गर्मी आई बारिश आई और कागज की लुगदी टुकड़ा टुकड़ा टपकती गयी, बहती गयी रह गया सिर्फ पंजर बारिक बेंत का क्रोस डाल पर झूलता और वो पेड़ भी तो अब गिरने को है| ०६-०६ –२०११ २२:१५ डॉ नूतन गैरोला |
Sunday, May 1, 2011
वो स्त्री और चित्रकार - डॉ नूतन गैरोला
इस जलन को इस आग को खुल के हवा दे|
Photo – My Own Photo Edited in Web.
डॉ नूतन डिमरी गैरोला
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Wednesday, April 20, 2011
मन की कैद - डॉ नूतन गैरोला
स्वीकार करता या करता विद्रोह|
डॉ नूतन गैरोला २०-४-२०११ |
Friday, April 8, 2011
माँ और सपने- माँ की चौथी पुण्यतिथि पर
आज माँ की पुण्यतिथि है| वात्सल्य, दया, प्रेम की मूर्ति माँ उतनी ही कर्तव्यपरायण और कर्मठ रहीं जितनी परोपकारी | वह जितनी अच्छी पत्नी थी, उतनी ही प्यारी माँ थीं| माँ घर की ही नहीं आसपास के बच्चों को भी बहुत प्रेम करती थी, नेक सलाह देती थी और बच्चे भी माँ का सम्मान करते और उनके कहने पर पढाई कर आगे बढ़ने की सोचते| वह सबका भला चाहतीं और सबको प्रोत्साहित करतीं | एक बात और वह कभी अन्याय होते नहीं देख सकती थी इसलिए वो न्याय के लिए, किसी निरीह की मदद के लिए अकेले ही आगे चली जातीं थी चाहे कोई उनका साथ दे या ना दे| उन्होंने हमें हमेशा ये शिक्षा दी के जितना भी हो सके सबका भला करो, इसमें तुम्हारा भी सदा भला होगा| उन्होंने हमें बहुत लाड से पाला और हमारी भलाई के लिए कड़क हो जाती थी वो, उन्हें फूलों से बहुत प्यार था.. तरकारी के अलावा या उससे ज्यादा वो बगीचे में फूलों को उगातीं थीं … - जिस समय मैं यह लिख रही हूँ आज से ४ साल पहले इसी समय माँ न चाहते हुवे भी हमें छोड़ गयी थी - उनकी कमी से मन में निर्वात हो गया है - वो जगह कभी नहीं भर सकती जो स्थान माँ का था| माँ के वियोग में मन बहुत तड़पा, तब चाहा माँ कभी सपने में मिले किन्तु माँ कभी सपने में दिखाई नहीं दी.. तब लगा कि क्या माँ के प्रति मैंने अपने कर्तव्यों में वफ़ादारी न की, कहीं कोई गलती हुवी क्या जो माँ सपने में भी नहीं आई| माँ और मंदिर फिर ठीक एक माह के बाद माँ ने सपने में आ कर मेरा हाथ थामा, बहुत प्यार से ले गयी और एक पूजास्थली दिखाया जहाँ एक बड़ा दीया था और कहा - चिंता नहीं करना तुम, मेरी यहाँ पूजा होती है .. और फिर मैंने खुद को माँ के साथ एक रिक्शे में बैठा देखा , जिसको एक लड़का चला रहा था, और सोया हुवा था, माँ मुझे एक पहाड़ी ढाल पर ले गयीं, जहाँ खेतों के पार दूर पहाड़ पर एक सफ़ेद मंदिर दिखाई दे रहा था| माँ ने बताया बबली ( मेरे घर का नाम ) यह मेरा घर है| मैंने वहाँ जाने के लिए अपने कदम खेत पर रखे, लेकिन कदम टस से मस नहीं हुवे, तब माँ बोली - वहाँ जाने के लिए कदम जमीन से ऊपर हवा में पड़ने चाहिए| तब मैंने कोशिश की लेकिन मेरे कदम जमीन पर ही पड़ते थे और मैं उस पार उस मंदिर में ना जा पायी जहाँ माँ का निवास था| फिर माँ ने मेरे गाल पर थप्पड़ मारा और कहा उठ, फिर नहीं कहना माँ नहीं आई - और उस थप्पड़ से मेरी नींद खुल गयी और मुझे यह अहसास हुवा कि माँ अभी अभी मेरे साथ थी और वह सपना भी याद रहा … और दूसरा सपना लगभग एक महीने बाद दिखा था जिसमें मैं माँ के साथ एक रेलयात्रा पर हूँ उसका विवरण इस कविता में हैं | |
एक रेलगाड़ी और हम मैंने देखा था इक सपना एक रेलगाड़ी और हम पिताजी टिकट ले कर आते हुवे और लोग स्टेशन का पता पूछते हुवे इतने में रेल चल पड़ी थी खड़े रह गए थे वो(पिता जी ) अकेले स्टेशन में बेहद घबराये छटपटाये थे और याद नहीं घर के लोग किधर बिखर गए थे रेलगाडी दौड़ रही थी सिटी बजाती और उस डब्बे में थे तुम और मैं और कुछ भीड़ सी औरतों की, मर्दों की, भजन गाती| कुछ अनचाहे चेहरे, क्रूर से, मेरे पास से गुजरे थे और तुम ने समेट लिया था मुझे, छुपा लिया था मुझको खुद के आगोश में स्नेह भरे उस आलिंगन में फेर लिया था मेरे सर पे हाथ कितना भा रहा था मुझको तेरा मेरा साथ भीग रहा था मन और तन, झूम स्नेह की बरखा आई इतने में एक आवाज तुम्हारी पगी प्रेम में आई जो बोला तुमने भी न था, न मैंने कानों से सुनी वो आवाज मेरी आँखों ने मन-मस्तिष्क से पढ़ी तुमने कहा मजबूत बनों खुद, ये साथ न रहे कल तो? और तुम्हारे चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच आयीं थी | जाने क्यों वक़्त रेल की गति से तेज भागता जाने कहाँ रिस गया जाने क्यों मैं नीचे की बर्थ पे बैठी रही और तुम ऊपर की बर्थ में कुछ परेशान सोच में | रेल धीरे.. धीरे... धीरे.... और रुकने लगी साथ भजन की आवाजे तेज तेज तेजतर गूंजने लगी जाने क्यों में रेल से नीचे उतर आयी कानों में लिए भजन की आवाज रेल का धुवां और सिटी की आवाज जब दूर से कानों पे आई तो जाना मैं अकेले स्टेशन में थी और वह रेल तुम्हें ले कर द्रुत गति से चल दी थी आगे कहाँ, जाने किस जहां तुम्हारे वियोग में मैं हाथ मलती खड़ी बहुत पछताई और टूट गया था वो सपना, था वो कुछ पल का साथ मैं भीगी थी पसीने से और बीत रही थी रात आँसू के सैलाब ने मुझको घेरा था मैंने जाना सब कुछ देखा जैसा, वैसा ही तो था क्यों पिताजी की आँखों में सदा रहती थी नमी हमारी खुशियों की खातिर सदा मुस्कुरा रहे थे वो जब कि उनको भी बेहद कचोट रही थी कमी... तब चीख के मैंने उन रात के सन्नाटों को पुकारा था... उस से पूछा था तुम कहीं भी फ़ैल जाते हो एक सुनसान कमरे से एक भीड़ में अँधेरे से उजाले में, धरती-पाताल से आकाश और दूर शून्य में और वो तारा टिमटिमा रहा है जहाँ, वहाँ भी तो तुम रहते हो फिर तुमने देखा तो होगा उनको .. बोलो बोलो मेरी माँ है कहाँ .. सन्नाटा भी था मौन और फिर हवा से कुछ पत्तों के गिरने की आवाज थी.. जैसे कह रहें हों कि जो आता है जग में वो एक दिन मिट्टी में मिल जाता है.. तुम मिट्टी में मिल गयी ये स्वीकार नहीं मुझको फिर वो रेल कहाँ ले गयी तुमको किस परालोकिक संसार में पुकारती हूँ तुमको फिर भी इस दैहिक संसार में ... बोलो मेरी प्यारी माँ तुम कहाँ, तुम कहाँ इंतजारी है मुझको अब उस रेल की तुमसे दो घडी का नहीं, जन्म जन्म के मेल की .. डॉ नूतन गैरोला |
तीन चित्र माँ ( श्रीमती रमा डिमरी ) पारंपरिक नथ पहने हुवे, मेरे साथ | माँ इक्कीस साल की मैं ( छः महीने की) माँ की गोद में, साथ में पिता जी, दोनों बड़े भाईसाहब माँ तुमको शत् शत् नमन माँ के चरणों में श्रद्धासुमन |